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सपनों के पंख

ब्याह के बाद मेरा नाम कुसुम से "छोटी बहू" हो गया। क्योंकि बहुत बड़े खानदान की सबसे छोटे पुत्र की छोटी पत्नी थी मैं। मुझसे पहले मेरे पति ने सरला दी से शादी की थी। परंतु 10 वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद भी जब सरला दी माँ नहीं बन पाई तो मेरे ससुर जी ने उनके छोटे पुत्र की दूसरी पत्नी के लिए मुझे चुना। सरला दी का माँ नहीं बन पाना ही एकमात्र कारण था की मैं इस घर की छोटी बहू बन गयी।

मेरे पिता पंडित केशवलाल को मेरे अलावा भी औऱ चार पुत्रियां हैं। औऱ उनकी कमाई का एकमात्र ज़रिया था दक्षिणा में मीले थोड़े बहुत रुपये। मैं पंडित जी की तीसरी औलाद थी। पंडित की बेटी होने का दर्जा मिला था हम सब बहनों को इसलिए सब गांव वाले आदर किया करते थे। हम सभी बहने उन्मुक्त चिड़ियों की भांति घुमा करते थे पूरा गांव।

मैं तब आठवीं में थी, उम्र 16 वर्ष ही हुई थी। इस बीच ही मेरा विवाह तय हो गया। मैं अवोध उस वक़्त ब्याह का मर्म भी नहीं समझती थी। और आनन फानन में मेरा ब्याह हो गया।

ब्याह के पहले तक तो मैं सरला दीदी( सौतन) को जानती भी नहीं थी। फ़िर भी लोगों की बातें सुनकर ही मैंने ये अनुमान लगा रखा था की, चूँकि वे मेरी सौतन हैं तो मेरे प्रति उनका व्यवहार बुरा ही होगा। मैं तो ख़ुद को इसके लिए तैयार भी कर चुकी थी। लेकिन मेरा अंदाजा तब गलत सावित हुआ जब ब्याह के बाद मैं महावर लगे कदमों से अपने ससुराल के आंगन में खड़ी हुई और देखा सरला दी मुस्कुराते हुते मेरे गृहप्रवेश के लिए आरती की थाल लिए खड़ी थी। जबकि मेरी अपनी तीन तीन सास हैं, और पूरे खानदान में तो 10-12 होंगी। फ़िर भी गृहप्रवेश की रस्म सरला दी कर रही हैं ये मेरे लिए सोचने वाली बात थी।

खैर 5-6 दिनों के बाद ब्याह में आये सारे मेहमान भी चले गए। अपनी घटिया सोच के कारण,मैं चाह कर भी सरला दी से खुद को जोड़ नहीं पा रही थी। पर वे हमेशा मेरे सुविधाओं का खयाल रखती। 

ब्याह के बाद जैसे मेरी जिंदगी बेरंग हो गयी। तमाम सुख सुविधाओं के वाबजुद भी उस बड़ी सी हवेली में मेरा दम घुटने लगता। पति उम्र में 16 साल बड़े थे, कभी दिल की बात उनसे कहने की हिम्मत नहीं जुटा पायी। औऱ सरला दी को तो मैंने हमेशा नजरअंदाज ही किया। हालाँकि मैंने कभी कोई बुरा व्यवहार नहीं किया उनके साथ। फ़िर भी जो प्यार वे मुझे देती थी मैं उन्हें वो इज्ज़त नहीं दे पाती थी। फ़िर उन्हीं दिनों मैंने डायरी लिखना शूरु किया ....हर वो बात लिखा जो मैं किसी और को कह नहीं पाई कभी.... जैसे आगे पढ़ने की मेरी इच्छा, गांव में एक अस्पताल खोलने की इच्छा!! जो कि मेरी माँ से जुड़ी थी, दरसल मेरी पांचवी बहन के जन्म के तुरंत बाद ही मेरी माँ का देहांत हो गया था । चूँकि उस वक़्त सारे बच्चे घर पर ही दाई माँ के भरोसे ही होते थे। तो किसीने 75 किलोमीटर दूर अस्पताल जाना भी शायद पड़े ऐसा सोचा ही नहीं था। माँ बेचारी हर साल लगातार बच्चे पैदा करते करते थक चुकी थी, कमज़ोर हो चुकी थीं। और पांचवी बार प्रसव पीड़ा के वक़्त वो दर्द सह नहीं पाई। उस वक़्त उन्हें डॉक्टरों की जरूरत थी। पर गांव में अस्पताल न होने के वजह से माँ को अपनी जान गवांनी पड़ी। समझदार होने के बाद जब मैंने माँ की ये दुःखद कहानी सुनी तो उसी वक़्त मैंने सोच लिया कि मैं गांव में एक अस्पताल जरुर खोलूंगी। और भी छोटी बड़ी हर बात को मैं डायरी मे लिख कर रखने लगी, इससे मन हल्का हो जाता था। 

इसी तरह दो वर्ष बीत गए......

सरला दी और मेरा रिश्ता अब काफी हद तक सुधर चुका था। अब मैं उन्हें सौतन नहीं वरन बड़ी बहन मानने लगी थी।
वो भी मुझे प्यार से लाडो पुकारती थी, मेरी नादानियों पर पर्दा डालती थी, जिद कर करके मुझे खाना खिलाया करती थी। उनके प्रेम का असली महत्व तब समझ आया जब मैं गर्भवती हुई।
मैं कैसे लिखूं उनकी खुशी को कौन से शब्दों में लिख कर जाहिर करु। मुझसे से कई गुना ज्यादा वे खुश थीं। उन दिनों 
हर पल उन्होंने मुझे अपने पास रखा। ठीक वैसा ही मेरा ख्याल रखा जैसे एक माँ अपनी गर्भवती बेटी का रखती है।
उस वक़्त सरला दी मुझे मेरी माँ जैसी लगी।

करीब नौ महीने बाद मैंने दो जुड़वा बेटों को जन्म दिया, घर पे ही पर बिल्कुल सुरक्षित।
होठो पे मुस्कान और आंखों में खुशी के आंसू लिए वो मेरे पास आई और बोली ........"लाडो" कैसे तुम्हें धन्यवाद जताऊं, तुम्हारे जरिये आज मेरे सपने पूरे हुए तुम मेरे सपनों की पंख हो लाडो। मैं कब से तरस रही थी इन अनमोल रत्नों को पाने के लिए........ तूने मेरे सपनों को साकार किया है लाडो। आज तुम मुझसे जो मांगोगी, में हर हाल में तुम्हे वो दूंगी। जो चाहिए बोल लाडो। वो एक पल था जब मुझे सरला दी मेरे पति से भी ज्यादा अपनी लगीं। .....काश भगवान ने उनके सपने उनके ही द्वारा पूरे किए होते, उनके मातृत्व को देखकर मैं अचंभित थी। 

फिर एक भावना ने मुझे दुःखी कर दिया.... काश .... गांव में एक अस्पताल होता तो शायद सरला दी का सही इलाज हो पाता तो शायद सरला दी भी गर्भवती होने के सुख को जी पाती। खैर मैंने सोच लिया मुझे सरला दी से क्या मांगना हैं। मैंने उन्हें मेरे सपने के बारे बताया की मैं आगे पढ़कर गांव में अस्पताल खोलना चाहती हुँ, ताकि गांव में औरतों का इलाज आसानी से हो सकें। मेरा इतना कहना था कि उन्होंने मेरी पीठ थपथपा कर कहा अच्छे काम को करने से कोई रोक नहीं  सकता। और वे जी जान से मेरे सपने को साकार करने में लग गईं।

सबसे पहले उन्होंने मेरे पति को मनाया फिर पूरे खानदान को.... वैसे ये काम उतना आसान नहीं था जितने सरलता से मैंने लिखा है । घर का हर सदस्य उनके खिलाफ था। उन्होंने सबके आगे हाथ जोड़े मेरे लिए। तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से सब राजी हुए। पर शर्त ये था कि दोनों नवजात को मां की कमी नहीं होनी चाहिए जिसके लिए उन्होंने कहा कि उनके रहते दोनों शिशुओं को माँ की कमी नहीं हो सकती। मुझे भी अब उनपर खुद से ज्यादा भरोसा था।

सरला दी ने ही मेरा स्कूल में दुबारा दाखिला करवाया जो कि मेरे घर से एक किलोमीटर दूर था। सुबह दस से चार बजे तक मैं स्कूल में रहती और वे पूरा दिन घर को, मेरे बच्चों को संभालती, चौबीस से पच्चीस लोगो का खाना बनाती और दोपहर के वक़्त दोनों बच्चों को मेरे पास ले आती ताकि उन्हें माँ का दूध मिल सके।

खैर देखते-देखते चार साल बीत गए। मैंने बारहवी की परीक्षा में पूरे पंचानवे प्रतिशत नंबर लाये जोकि पूरे जिले में सबसे ज्यादा थे। पर अब भी सरला दी कि मुश्किलें कम नहीं हुई। अब आगे की पढ़ाई के लिए मुझे शहर जाना पड़ता , क्योंकि गांव में आगे के लिए कॉलेज नहीं थे। इस बार पतिदेव ने बच्चों के भविष्य की बेहतरी सोच कर ही सही मुझे और सरला दी को शहर में एक मकान किराये पर दिला दिया। क्योंकि शहर में बच्चों के लिए अच्छे प्राइवेट स्कूल थे।

मैं, सरला दी और दोनों बच्चे शहर में एक दो मंजिला मकान में शिफ्ट हो गए । ये घर हम चारो के लिए काफी बड़ा था पर पतिदेव को बच्चों से इतना प्रेम था कि वो चाहते थे बच्चों के सुविधा के हर समान घर में ही हो। ये हम चारो की नई जिंदगी थी। मैन कॉलेज जाना शुरू किया और बच्चों ने भी स्कूल की राह पकड़ ली। अब पूरे घर में सरला दी नितांत अकेली रह गई। बच्चे स्कूल से आकर भी मुझसे ज़्यादा सरला दी को ही प्राथमिकता देते। और ये मुझे काफ़ी सुकून भी देता था। बच्चो से मिल रहा प्यार ही तो सरला दी की जीवनशक्ति थी।

समय बीत ता गया और सरला दी की मेहनत रंग लायी.... आज सुबह ही मेरे घर एक कोर्ट की नोटिस आयी जिसमें लिखा है की गांव में अस्पताल खोलने के लिए मैंने जो अनुरोध दर्ज़ की थी उसे सरकार के तरफ़ से हरी झंडी दिखा दी गयी हैं। सरला दी को बताया तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा दिन भर लाडो ...लाडो...पुकारने वाली सरला दी आज मुझे डॉक्टर कुसुम कहकर बुला रही थी। गांव में भी खबर फैल गयी कि हवेली की छोटी बहू अब गांव में अस्पताल खोलेगी। पतिदेव भी काफ़ी खुश थे। मैंने सरला दी को ज़ोर से आलिंगन में भरकर कहा " दी आप ही मेरे सपनों के पंख हो, आपके बिना मेरे सपने कभी पूरे नहीं हो पाते।

अब शुरू हुआ अस्पताल बन ने की तैयारियां, इसके लिए अब मुझे दुबारा गांव में रहना पड़ रहा था। पर सरला दी वहीं रही क्योंकि दोनों बच्चे अभी पांचवी में पहुँच चुके थे। उनकी पढ़ाई की अहमियत सरला दी मुझसे कई गुना बेहतर समझती थी। सही मायने में वे ही बच्चों की असल माँ थी।मैंने जन्म देने के अलावा कुछ और नहीं किया अपने बच्चों के लिए। ऐसा नहीं था कि मैं अपने बच्चों से प्यार नहीं करती थीं। पर मैं ये भी समझती थी की सरला दी की जिंदगी, उनकी खुशियां बच्चों के इर्द गिर्द ही बसी थी। बच्चों से जुड़े हर काम को करने में उन्हें एक आंतरिक खुशी मिलती थी।इसलिए मैंने भी कभी उनके और बच्चों के बीच हस्तक्षेप नहीं किया।

सरला दी शहर में बच्चों के साथ खुश थी, और मैं गांव में हर पल अपने सपने को पूरा होते हुए देखते हुए खुश थी। लेकिन कई बार मैंने महसूस किया की मेरे जाने के बाद सरला दी अब काफ़ी अकेली पड़ गयी हैं क्योंकि बच्चे भी अब पढ़ाई में ज़्यादा व्यस्त रहने लगे थे। मुझसे उनका ये अकेलापन देखा नहीं जा रहा था। तब मैंने ही उनसे कहा की अपने खाली वक़्त में वो बागवानी शुरू करें। इसके लिए अनमने ढंग से ही सही पर वे राजी हो गई। 

अस्पताल भी लगातार अपनी तेज़ी से बनता रहा। लगभग 3 महीने बाद थोड़ी फुर्सत मिली तो मैं शहर गयी , यहाँ आकर तो मैं भौचक ही रह गई। आंगन में घुसते ही तरह तरह के रंग बिरंगे फूलों के पौधे दिखें। कुछ मौसमी सब्जियां भी। मैं घूम घूम कर पूरे गार्डन में प्रकृति के इस नए रूप का आनंद ले रही थी... कितनी निष्ठा और प्रेम से सरला दी ने इन पौधों को सींचा हैं बिल्कुल हरे भरे पौधें। बिल्कुल वैसे ही जैसे मेरे बच्चों को वो सींच रही हैं। सुंदर, तंदरुस्त, हष्ट-पुष्ट,और अच्छी सीख के साथ। कितनी बेफ़िक्र थी मैं की मेरे बच्चे उनके छाव तले पल रहे हैं। मानवीय प्रेम और करुणा की मिसाल थी सरला दी। कितना कम लेकर उन्होंने मुझे कितना ज़्यादा वापस किया ये सिर्फ़ मैं ही समझती थी। उनका और मेरा जो रिश्ता बन गया था, समाज में ऐसे रिश्ते कम ही देखने को मिलते हैं।

खैर आज अस्पताल बन कर तैयार हैं। आज उद्घाटन समारोह हैं, आज बच्चों के साथ साथ सरला दी भी गांव आयी हैं। आज बहुत खुश थी वो जब उन्होंने देखा मैंने अस्पताल का नाम....." सरला मातृत्व नर्सिंग होम " रखा है। कभी वो मुझे, कभी बच्चों को, तो कभी अस्पताल को देखती, ।

गांव के तमाम लोग आज अस्पताल के प्रांगण में उपस्थित थे भीड़ लगाकर। मैंने सबके सामने सरला दी को रिबन काटकर अस्पताल का उद्घाटन करने के लिए अनुरोध किया। लेकिन उसी वक़्त पतिदेव न जाने कैसे निष्ठुर हो गए,परिवार वालों के साथ साथ वे भी विरोध करने लगे की सरला दी से रिबन नहीं कटवाना चाहिए। और साथ ही कटाक्ष सुनाई पड़ी क्योंकि सरला दी बांझ हैं तो उसके हाथों उद्घाटन करवाना अपशगुन होगा।  ऐसा कहने वाले स्वयं मेरे पतिदेव थे। वो पल ऐसा था कि सरला दी के साथ साथ मैं भी जड़ से कटे पेड़ की भांति ढह गयी। किसी तरह खुद को संयमित कर मैंने लोंगो को समझाया। 

की किस तरह वे मेरे बच्चों की असल माँ हैं।उन्होंने ने अब तक उनकी परवरिश की, सही ग़लत समझाया। मात्र जन्म देने से हि कोई माँ नहीं बन सकता।माँ बन ने के लिए समर्पित होना पड़ता हैं जो की सिर्फ सरला दी ही कर पायी। और फ़िर अगर सरला दी का सहयोग उनका समर्पण मेरे साथ नहीं होता तो इस अस्पताल की एक नीव तक नहीं बन पाती। इस बीच सरला दी मौन थी, एकटक वो बस बच्चों को देख रही थी।

लोगों को समझाने के बाद मैंने दुबारा सरला दी को आग्रह किया की वे ही उद्घाटन कर इस अस्पताल का उद्धार करें। पर उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। किसी अनजान भय से आशंकित नज़र आयी वो। उन्होंने कहा रिबन बच्चों से कटवा ले लाड़ो मेरा ही तो स्वरूप हैं ये। 

हार मान ना ही पड़ा उनके तर्कों से बच्चों ने ही रिबन काटा।पर उस दिन से मैंने महसूस किया की सरला दी के अंदर कुछ टूट गया था, जिसकी आवाज़ सिर्फ़ मुझे सुनाई दे रही थीं। वे बिल्कुल खामोश रहने लगी थी। लगातार दस दिनों से मैं सरला दी के साथ ही शहर वाले मकान में थी । बच्चे ठंड की छुट्टियाँ गांव में बिता रहे थे अपने पिता के साथ। 



मैं हर पल सरला दी को खुश करने की कोशिशें करती रही पर उन्होंने तो जैसे खामोशी की चादर ओढ़ ली थी। मेरी तमाम कोशिशें नाकाम होती रही। मैंने गौर किया उनके साथ साथ ही उनके बागान का हर फूल मुरझा रहा हैं, मेरे लगातार हर रोज़ पानी डालने पर भी पौधें लगातार सुख रहे हैं। आज सुबह उठकर भी मैं सबसे पहले पौधों को पानी डालने गयी तो देखा आज आखिरी पौधें में बचा आखिरी फूल की कली भी सूखकर झड़ चुकी हैं। तो क्या सरला दी भी खत्म हो गई इस फूल के साथ साथ। ये ख्याल आते ही मन धक से रह गया ....मैं दौड़कर उनके कमरे में गयी तो देखा सरला दी खिड़की के तरफ़ मुँह किये बैठी हैं जहां से आख़िरी पौधा बिल्कुल साफ़ दिखाई देता है। खिड़की खुली हुई थी और रात में ओंस की बूंदे उनके बालों में गिरकर मोतियां उगाई थी, सूरज की रौशनी में ओंस की बूंदे मोतियों की तरह चमक रही थी। इसका मतलब सरला दी रात भर यही बैठी रही, खिड़की खोलकर दिसंबर की भयानक कड़कड़ाती ठंड में। मैं दौड़कर उनके पास गयी उनके माथे को छूते ही वो मेरी तरफ़ निढ़ाल हो गई। उसी वक़्त उनके हाथों से छूटकर गिर गया मेरे दोनों बच्चों की तस्वीरें। शायद रात भर सरला दी उस सूखे फुल को देखती रही और उसके टूटकर गिरतें ही सरला दी ने भी अपने प्राण त्याग दिए। उस आख़िरी फूल के साथ साथ वो भी झड़ गयी। आज मेरे दोनों बच्चे अनाथ हो गए।हे ..ईश्वर .....आपने तो मुझसे मेरे सपनों के पंख ही छीन लिये।।।।।।

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1 Comments

🤫

31-May-2021 06:01 PM

प्रेरणादायक कहानी के साथ......सच्चाई से अवगत कराती हुई एक खुबसूरत कहानी...!

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